Nyaya Panchayat- न्याय पंचायत

न्याय पंचायत (nyaya panchayat) ग्रामीण स्तर पर विवदों के निपटारा करने की एक ग्रामीण न्याय प्रणाली हैं। इसी का विकसित रूप वर्तमान समय की न्याय व्यवस्था हैं। इसे ही ब्रिटिश शासन काल में ‘ग्राम कचहरी’ (Gram kachahri) कहा जाता था। इसी ग्राम कचहरी में पंचों द्वारा ग्रामीण विवदों का निपटारा किया जाता था। यह ग्राम कचहरी अब अस्तित्व में नहीं हैैं। लेकिन इसका एक खण्डहर रूप बिहार राज्य के भोजपुर जिला के ‘कोथुआँ’ गांव में देखा जा सकता हैं। यह ग्राम कचहरी दीवार से बना खपडैल का हैं। आगे का भाग लकड़ी के नकाशीदार पाया (पिलर) पर खड़ा हैं।

न्याय पंचायत के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-

न्याय पंचायत का भ्रूूण रूप हाॅब्स (Hobbs) के प्राकृतिक अवस्था में भी देखा गया हैैं। जब हाॅब्स के मनुष्यों ने आपस में एक समझौता किया था और बाद में दूसरा समझौता राजा के साथ किया था। इसलिए कहा भी जाता हैै कि हाॅब्स ने दो समझौता किया था। प्राकृतिक अवस्था से संबंधित होनेेेेेे के कारण ही न्याय पंचायत के फैसले ‘प्राकृतिक न्याय’ के व्यापक सिद्धांत पर आधारित जामा पहनाते हुए इसे सरल व सुगम बनाया गया था। आज भी हम इसी आधार पर कह पातेे हैं कि न्याय पंचायत (nyaya panchayat) प्राकृतिक न्याय केेेे व्यापक सिद्धांत पर आधारित हैं।

Nyaya Panchayat- न्याय पंचायत

     विदित हो कि प्राचीन काल से ही स्थानीय स्वशासन की झलक व कार्यों को देखा जा सकता हैं। लेकिन कालांतर में इसके स्वरूप बदलते रहे हैं। इसी क्रम में आज का ‘पंचायती राज’ (Panchayati Raj) भी प्राचीन स्वशासन का ही नवीन स्वरूप हैं। स्थानीय स्वशासन के अंतर्गत ‘न्याय पंचायत’ भी एक न्यायिक निकाय हुआ करती हैं। यह हर काल में किसी-न-किसी स्वरूप में मौजूद रही हैं। जैसेेे-

 वैदिक काल में- वर्तमान मुखिया को वैदिक काल में ‘ग्रामणी’ या ‘ग्रामाधिपति’ कहा जाता था। इनका चुनाव तत्कालीन ग्राम-परिषद द्वारा किया जाता था।
बौद्ध काल में– 

ग्राम प्रधान को ‘ग्राम-योजक’ कहा जाता था। इनका चुनाव संबंधित ग्रामवासी करतेेेे थे।

मौर्य काल में-  ग्राम प्रधान को मौर्य काल में ‘ग्रामिक’ कहा जाता था। मौर्य काल में विवादों का निपटारा करने के लिए ‘ग्रामसभा’ ही ‘न्यायसभा’ का कार्य करती थी। मौर्य काल में सभी गांँव अपने आप में पूर्ण ‘स्वतंत्र गणराज्य’ थे।

गुप्त काल में-  इस काल में गांँव के प्रधान (मुखिया) को ‘ग्रामिक’, ‘ग्रामपति’ व ‘ग्रामहत्तर’ के नाम से जाना जाता था।

मुगल काल में-  यह काल पंचायतों के पतनकाल के रूप में जाना गया। क्योंकि इस काल में पंचायती व्यवस्था लुप्त प्रायः हो गई थी। मुगलों ने जमीदारी प्रथा पर ध्यान दिया, पंचायतों पर नहीं। अर्थात् स्थानीय स्वशासन पर नहीं। नगरों के विकास पर ध्यान दिया, गांँवों के विकास पर नहीं।

ब्रिटिश काल में-  मुगलों के बाद अंग्रेजी हुकूमत आयी। मुगलों द्वारा बर्बाद पंचायतें ब्रिटिश शासकों को मिली थी। ब्रिटिश शासकों ने पंचायतों अर्थात् स्थानीय स्वशासन को बढ़ावा देने के लिए लॉर्ड रिपन ने 1882 ई॰ में एक प्रस्ताव लाया। लॉर्ड रिपन को ब्रिटिश काल में आधुनिक स्थानीय स्वशासन को प्रारंभ करने का श्रेय जाता हैं। इसलिए लॉर्ड रिपन को ‘आधुनिक स्थानीय स्वशासन’ का जनक भी कहा जाता हैैं।

     उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि स्थानीय स्वशासन किसी-न-किसी रूप में प्राचीन काल से ही अपने तत्कालीन स्वरूप में विद्यमान था। स्थानीय स्वशासन के अंदर ही ‘न्याय पंचायतें’ भी कार्यरत् थी। आज वर्तमान समय में जो हम ‘पंचायती राजव्यवस्था’ देखते हैं। यह प्राचीन स्थानीय स्वशासन अर्थात् पंचायती राजव्यवस्था का विकसित रूप हैं।

वर्तमान स्वरूप-  वर्तमान स्वरूप का ब्लूप्रिंट ब्रिटिश शासन काल में कई अधिनियमों के द्वारा अव्यवस्थित रूप में देखने को मिलता हैं। स्थानीय स्वशासन को मजबूती प्रदान करने के लिये ब्रिटिश शासकों ने भारत शासन अधिनियम, 1909, 1919 और 1935 के माध्यम से प्रयास किये थे। 1908 में विकेंद्रीकरण का भी प्रस्ताव लाये थेे। लेकिन इन कोशिशों के बाद भी वर्तमान स्वरूप को हासिल नहीं किया जा सका।

     वास्तविक मजबूती आजाद भारत में 1992 में 73वाँ संविधान संशोधन के द्वारा प्रदान करने की कोशिश हुई हैं। चूँकि त्रि-स्तरीय सरकार में स्थानीय स्वशासन ही सीधे तौर पर आम जनता से सम्बद्ध रहती हैं। स्थानीय सरकार मुख्य निकाय ग्राम पंचायत व ग्राम सभा ही होती हैं। स्थानीय सरकार के भी कुछ महत्वपूर्ण अंग होते हैं, जो स्थानीय सरकारों को सही स्वरूप प्रदान करते हैं। जैसे– ग्राम सभा, मुखिया, पंचायत समिति के सदस्य, जिला परिषद के सदस्य और न्यायिक भूमिका में सरपंच होते हैं। सरपंच के भी न्याय पंचायत होती हैं। जो अपने क्षेत्राधिकार में आने वाले विवादों का समाधान करते हैं। न्याय पंचायत स्थानीय सरकार के न्यायिक अंग होती हैं। जो न्याय देने व करने का काम करती हैं।

”पांँच पंच मिलि की जै काजा,
 हारे जीत न होवे लाजा।”

न्याय पंचायत का स्वरूप 73वाँ संशोधन 1992 में निर्धारित कर दिया गया हैं। लेकिन राज्यों को अपने-अपने तरीकों से लागू करने का अधिकार भी हैं। चूँकि यह विषय राज्य-सूची में रखा गया हैं। उदाहरण के तौर पर, उत्तर-प्रदेश और बिहार में न्याय पंचायत के सदस्यों का चुनाव करवाया जाता हैं। वहीं दूसरी ओर झारखंड प्रदेश में अभी तक न्याय पंचायत के सदस्यों का चुनाव नहीं करवाया जा सका हैं। संबंधित राज्यों के अधिनियमों के अनुसार चुनाव करवाये जाते हैं। जैसे– बिहार में महिलाओं को 50% सीट पंचायत में आरक्षित कर दिया गया हैं। वहीं झारखंड में वैसा कुछ नहीं किया गया हैं। चूँकि यह विषय राज्य-सूची का हैं। इसलिए राज्य अपने-अपने तरीके व समय से सुविधानुसार कर रहे हैं।

उदाहरण के तौर पर हम देखते हैं तो पाते हैं कि उत्तर-प्रदेश में, उत्तर-प्रदेश पंचायत राज अधिनियम की धारा 42 के तहत न्याय पंचायत का गठन होता हैैंं। इस के अनुसार न्याय पंचायत में न्यूनतम 10 सदस्य और अधिकतम 25 सदस्य हो सकते हैं। जो भी निर्धारित किया जाय। कार्यकाल 5 वर्ष होंगे। एक सरपंच और उपसरपंच होंगे। दीवनी और छोटे-छोटे अन्य मुकदमें सुनने का अधिकार होगा। न्याय पंचायत ग्राम पंचायत की न्यायपालिका हैैं।

     वहीं अगर हम बिहार राज्य के संदर्भ में देखते हैं तो पाते हैं कि बिहार पंचायत राज अधिनियम, 2006 के अनुसार न्याय पंचायत के लिए एक संस्था हैं ‘ग्राम कचहरी’ जो ग्राम पंचायत में न्यायपालिका की भूमिका में हैं। इस अधिनियम की धारा 102 के अनुसार बिहार में ग्राम कचहरी एक न्यायपीठ हैं। इस न्यायपीठ की मुख्य भूमिका वादी और प्रतिवादी के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण में समझौता करवाना हैं। 

इस के संदर्भ में– 👇

पंचायती राज्य का इतिहास एवं क्रियान्वयन

बिहार पंचायत राज अधिनियम के तहत जैसे ग्राम पंचायत में मुखिया चुने जाते हैं, वार्ड सदस्य चुने जाते हैं। वैसे न्याय पंचायत (ग्राम कचहरी) के लिए सीधे निर्वाचन क्षेत्र की जनता द्वारा सरपंच और न्याय पंचायत के लिए वार्ड सदस्य भी चुने जाते हैं। बिहार में भी इनका कार्यकाल भी उत्तर-प्रदेश जैसा ही 5 वर्ष का होता हैं। न्याय पंचायत (ग्राम कचहरी) के कार्यकाल को न्यायिक कोर्ट जैसा ही सजाया जाता हैं। न्यायाधीश अर्थात् सरपंच का आसन्न उच्चा रहता हैं। कोर्ट जैसा ही सामने लाल रंग का कपड़ा लगा हुआ होना चाहिए। जिस प्रकार केंद्र सरकार व राज्यों की सरकारों का एक अंग न्यायपालिका हैं। उसी प्रकार स्थानीय सरकारों का एक अंग न्यायपालिका होती हैं। जिसे न्याय पंचायत या ग्राम कचहरी कहा जाता हैं। न्याय पंचायत भी एक संवैधानिक संस्था हैं।

न्याय पंचायत द्वारा की गई कार्यवाहियों या अभिलेखों का निरीक्षण करने का अधिकार जिला न्यायाधीश या उसके द्वारा निर्देशित अन्य पदाधिकारी को भी हैं। न्याय पंचायत का उद्देश्य हैं– गांँव में ही सस्ता और सुगम तरीके से न्याय देना। ऊपरी न्यायालयों से मुकदमों का भार कम करना। अपना न्याय अपने ही लोगों के द्वारा गांँव में ही न्याय पाना। सौहार्दपूर्ण वातावरण में समझौता कराकर दोनों पक्षों में मेल-मिलाप कराना। जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रों का वातावरण सौहार्दपूर्ण बना रहे और शांति स्थापित हो सके। चूँकि सौहार्दपूर्ण वातावरण और शांतिपूर्ण माहौल में ही विकास संभव हो पाता हैं।

     इस प्रकार देखा जाता है कि देश में त्रि-स्तरीय सरकारें काम कर रही हैं-

  • केंद्र कि सरकार नई दिल्ली से
  • राज्यों की सरकारें अपने-अपने राजधानियों से और
  • गांँव की सरकारें।

जो अपने-अपने गांँव की पंचायत सचिवालय से संचालित हो रहीं। इसी गांँव की सरकार की न्यायपीठ अर्थात् न्यायपालिका न्याय पंचायत या ग्राम कचहरी कहलाती हैं। जो इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों के विवादों का समाधान या फैसला गांँव में ही हो जाने का प्रावधान हैं।

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सम्प्रभुता की अवधारणा एवं उसका विकास

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