The Concept Of National Interest – राष्ट्रहित की अवधारणा
National Interest
(राष्ट्रीय हित) विदेश नीति का आधारभूत सिद्धांत या प्राण तत्व हैं। विदेश नीति की सफलता और असफलता का मूल्यांकन राष्ट्रीय हित के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता हैं। यदि विदेश नीति राष्ट्रीय हित की रक्षा करने में सफल होती हैं तो उसे सफल विदेश नीति कहा जाता हैं और यदि वह राष्ट्रीय हितों की रक्षा पूरा नहीं कर पाती हैैैैैैं तो असफल विदेश नीति की संज्ञा दी जाती हैैं। अर्थात् किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति का लक्ष्य राष्ट्रीय हित की प्राप्ति या रक्षा करना हैं।
प्राचीन एवं मध्ययुगों में राज्यों के हित अधिपतियों के हित से भिन्न नहीं माने जाते थे। राजा अपने व्यक्तिगत गौरव के लिए युद्ध करता था, अश्वमेघ या राजसूय यज्ञ करके चक्रवर्ती बनता था। राजा के गौरव से प्रजा भी गौरवान्वित होती थी। राष्ट्र राज्यें के उदय के साथ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति इतनी सहज नहीं रह गयी। औद्योगिक क्रांति, व्यापारिक प्रगति, वैज्ञानिक दृष्टि, यातायात तथा संचार के साधनों का प्रचार राजकुमारों, सामंतों, सेनापतियों का ही खेल नहीं रह गया। अधिपतियों के व्यक्तिगत हित के स्थान पर राज्यों के हित का महत्व बढ़ा हैं। इस प्रकार प्राचीन समय से लेकर आज राष्ट्रीय हित किसी राष्ट्र के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। लॉर्ड पामरस्टोन ने वर्षों पहले कहा था– “हमारा कोई शाश्वत मित्र नहीं है और न ही कोई सदा बने रहने वाला शत्रु।” केवल हमारा हित ही शाश्वत हैं और न हितो का अनुसरण व संवर्धन हमारा कर्तव्य हैं। मारगेन्थाऊ के भी राजनीतिक दर्शन का मुख्य तत्व हैं– ‘राष्ट्रीहित की प्रधानता।’
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय हित की अवधारणा का क्या स्थान हैं? उस संबंध में, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों तथा पर्यवेक्षकों के बीच गम्भीर विवाद पाया जाता हैं। मारगेन्थाऊ जैसे विद्वानों का ऐसा विचार रहा है कि राष्ट्रीय हित की अवधारणा का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण स्थान हैं। उसी प्रकार फ्रैंकलिन का विचार है कि “राष्ट्रीय हित विदेश नीति की मूल अवधारणा हैं।” इसी परिप्रेक्ष्य में नारमन हील ने अपना विचार व्यक्त किया कि – “विदेश नीति की शुरुआती बिंदु राष्ट्रीय हित हैं।” दूसरी ओर प्रोरेन्लाड्स जैसे विद्वानों ने कहा कि हमेशा विदेश नीति को राष्ट्रीय हित पर आधारित करना संभव नहीं है, जो भी हो यह बात सामान्य रूप से स्वीकार की जाती हैं कि राष्ट्रीय हित की अवधारणा का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान है और सामान्यतः यह विदेश नीति के निर्माण तथा कार्यान्वयन में एक निर्देशक सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया जाता रहा हैं।
राष्ट्रीय हित दो प्रकार के हैं–
- मार्मिक या दीर्घकालीन राष्ट्रीय हित और
- अमार्मिक या तत्कालीन राष्ट्रीय हित।
मार्मिक या दीर्घकालीन राष्ट्रीय हित किसी राष्ट्र के मूलभूत और अत्यंत महत्वपूर्ण हित है, ये किसी राज्य के वे हित हैं जिन पर वह राज्य कोई भी रियासत करने को तैयार न हो और जिनकी रक्षा के लिए आवश्यकता पड़ने पर युद्ध करने को भी तैयार हो सकता हैं। किसी देश का मार्मिक हित बुनियादी समझा जाता हैं। राष्ट्रीय हित के अन्य सभी पहलु इसके समक्ष गौण समझे जाते हैं। इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा स्वाधीनता और अखण्डता की रक्षा आदि मुख्य हैं। राज्य के मूलभूत उद्देश्य बाहरी शत्रुओं से सुरक्षा प्रदान करना तथा आन्तरिक क्षेत्र में सुव्यवस्था कायम करना। राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में विदेश नीति निर्धारित सुरक्षा संधियों में सम्मिलित होते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध के समय तक गुप्त सुरक्षा संधियों की व्यवस्था राष्ट्रीय सुरक्षा की पहली और मान्य उपकरण थी। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर ही द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ ने NATO, CENTO, WARSAW PACT संधि एवं संगठन आदि की स्थापना की। भारत ने गुट-निरपेक्ष होते हुए भी USSR के साथ 1971 ई॰ में 20 वर्षों की मैत्री संधि की थी।
जो हित मार्मिक नहीं होते, जो केवल तत्कालीक महत्व के गौण हित होते हैं और जिनके लिए कोई राज्य युद्ध का खतरा मोल लेना नहीं चाहता। उन्हें अमार्मिक एवं अस्थाई स्वरूप के राष्ट्रीय हित कहते हैं। ऐसे गौण हित जनता का भौतिक कल्याण, प्रतिष्ठा की रक्षा, विचारधारा, प्रभाव, व्यापार की वृद्धि, संस्कृति का प्रसार आदि।
मारगेन्थाऊ ने राष्ट्रीय हित की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी हैं। उन्होंने केवल इतना कहा है कि राष्ट्र हित का अर्थ अत्यधिक व्यापक है और व्यापक स्वरूप उन बहुत से संस्कृतिक तत्वों पर निर्भर हैं, जिनके अंतर्गत किसी राज्य की विदेश नीति निर्धारित की जाती हैं। उन्होंने राष्ट्रीय हित के दो मुख्य पक्ष बताएँ हैं –
राष्ट्र हित कई कारणों से बदलता रहता हैं। कभी-कभी तत्व, वर्ग या जनता के मूल्यों में परिवर्तन होने से मार्मिक राष्ट्रीय हित की अवधारणा बदल जाती हैं। ट्रूमैन और आइजनहावर साम्यवादी चीन के प्रति अवरोध की नीति अपनाने में ही अमेरिका की सुरक्षा समझते थे, जबकि निक्सन और किसिंंजर चीन के साथ मधुर संबंध की स्थापना में ही अमेरिकी हितों की अभिव्यक्ति समझने लगे। किंतु सैद्धांतिक दृष्टि से सभी देशों के लिए राष्ट्रीय हित के मूलभूत तत्व एक जैसे हैं, सभी देश सुरक्षा चाहते हैं। राजनीतिक स्वाधीनता और क्षेत्रीय अखण्डता बनाए रखना चाहते हैं। सुरक्षा के बाद सभी देश अपने आर्थिक हितों का संवर्दृन चाहते हैं। अपने लिए व्यापारिक सुविधाएंँ चाहते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के राज्यों के राष्ट्रीय हितों में विरोध और संघर्ष पाया जाता हैं। भारत और चीन, भारत और पाक, भारत और अमेरिका के राष्ट्रीय हित कई बार एक-दूसरे के प्रतिकुल देखे गए हैं। इन देशों की विदेश नीतियों का उद्देश्य अपने विदेशी संबंधों का इस ढंग से संचालन करना हैं। जिससे राष्ट्रीय हित की सिद्धि यथा सम्भव अधिक से अधिक अनुकूल रूप से होने की गारंटी हो।
राष्ट्रीय हितों को बरकरार रखने के लिए राज्य अनेक प्रकार के साधन अपनाते हैं। कौटिल्य ने संधि, विग्रह, आसनयान, संश्रय और द्वैधीभाव की नीतियांँ तथा साम, दाम, दंड, भेद के उपाय अपनाने की सलाह दी हैं।
पामर और पारकिन्स के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय हित की अभिवृद्धि के साधन निम्नलिखित हैं-
आदर्शवादियों की मान्यता है कि राष्ट्रीय हितों का सम्प्रत्यय एक खतरनाक धारणा हैं। यदि एक राष्ट्र अपने संकीर्ण स्वार्थों या हितों को ही प्राथमिकता देता है तो दूसरे राष्ट्रों के हितों की उपेक्षा होती हैं। आज दुनिया के लगभग सभी राष्ट्र एक-दूसरे पर अंतः निर्भर है और यदि अपने हितों को सर्वोच्चता प्रदान करते हैं तो विश्व शांति अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग आदि संप्रत्ययकारी कल्पनाएंँ बनाकर ही रह जाएंगे। आज की बुनियादी समस्या यह है कि राष्ट्रीय हित की धरणा को मानव जाति के लिए संवर्दृन की धारणा में कैसे बदलें।
विदेश नीति और राष्ट्रीय हित–
राष्ट्रीय हित की अवधारणा विदेश नीति का मूलभूत सिद्धांत हैं। जब तक दुनिया राजनीतिक दृष्टि से राज्यों में विभाजित होती रहेगी तब तक विश्व राजनीति में राष्ट्रीय हित मार्मिक विषय रहेगा। विदेश नीति निर्माण का प्रारम्भिक बिंदु राष्ट्रीय हित हैं। वास्तविक रूप से तो राष्ट्रीय हित अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की कुंजी हैं। चाहे किसी राष्ट्र के कितने ही ऊँचे आदर्श हों और कितनी ही उदार अभिलाषाएँ हो, वह अपनी विदेश नीति में राष्ट्रीय हित के अलावा किसी दूसरी धारणा पर आधारित नहीं कर सकता।
मारगेन्थाऊजैसे कुछ अन्य विद्वानों (जैसे यथार्थ वादियों) की मान्यता है कि राष्ट्रीय हित ही विदेश नीति की आत्मा हैैं। राष्ट्रीय हित विदेश नीति की कुंजी हैैं।
विदेश नीति का संचालन राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से किया जाता हैं। सिद्धांतवाद की दुहाई दी जाती हैं, लेकिन व्यवहार में वही किया जाता है जो आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार राष्ट्रीय हित के अनुकूल हो, सैद्धांतिक दृष्टिकोण अपना प्रभाव खोता जा रहा हैं। युद्धोत्तर काल के प्रारंभ में इंग्लैंड की श्रमिक दलों की सरकार ने देश के सारभूत तत्व के रूप में उन्हीं हितों के संरक्षण की नीति अपनायी जिनकी सुरक्षा का टोरी और विंग ने शताब्दियों से जरूरी माना था। इसी तरह अमेरिका मे आइजनहावर की विदेश नीति ने देश के उन्हीं केंद्रीय लक्ष्यों पर ध्यान दिया जिन पर रूजवेल्ट और ट्रूमैन प्रशासन ने ध्यान दिया, अमेरिकी व्यवसायिक और आर्थिक हितों की रक्षा के लिए निक्सन-किसिंगर ने चीन से दोस्ती का हाथ बढ़ाया। इस तरह चाहे प्रविधियांँ, उपाय और साधन बदल जायँँ, लेकिन विदेश नीति राष्ट्रीय हितों के अनुकूल ही संचालित की जाती हैं।
निःसंदेह समय और परिस्थिति के अनुसार राष्ट्रीय हित की जो मांँग है उसी के अनुरूप विदेश नीति का संचालन किया जाता हैं। इसमें भी हितों का एक क्रम या पदसोपान बैठाना होता हैं। प्राथमिक हितों की रक्षा पहले की जाती है और गौण हितों की बाद में।
यह सच हैं कि राष्ट्रीय हित परिस्थिति एवं आवश्यकता अनुसार बदलते रहते हैं, लेकिन कम-से-कम तीन बातें ऐसी हैं जिन्हें हर राज्य को अपनी विदेश नीति में आवश्यक रूप से स्थान देना चाहिए। वे तीन बातें निम्नलिखित हैं-
- आत्मरक्षा
- सुरक्षा और
- लोक कल्याण।
राष्ट्रीय हित के आधार पर विदेश नीति के लक्षणों को तीन भागों में बांँटा जा सकता हैं-
1. प्राथमिक लक्ष्य-
प्राथमिक लक्ष्यों में राष्ट्र के उन हितों को रखा जाता है जो राज्य की आधारभूत मान्यताएंँ हैं। ये आधारभूूत मान्यताएंँ निम्न हैं –
- राष्ट्रीय सुरक्षा
- आर्थिक हित
- राष्ट्रीय हित का संचय।
2. मध्यवर्ती लक्ष्य–
मध्यवर्ती लक्ष्यों में पुनः राष्ट्रीय सहयोग, प्रतिष्ठा एवं अपने नागरिकों के हितों की रक्षा करना आदि बातें शामिल हैं, जैसे –
- दबाबगुट हित समुदाय,
- गैर राजनीतिक सहयोग
- राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वृद्धि।
3.दीर्घकालीन लक्ष्य–
इन लक्ष्यों में, कुछ दीर्घकालीन योजनाएंँ, कल्पनाएँ व स्वप्न सम्मिलित किए जाते हैं, जिनके माध्यम से एक राज्य अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में मनोवांछित परिवर्तन करने की इच्छा करता हैं। सोवियत रूस की विदेश नीति में सम्पूर्ण विश्व में साम्यवादी क्रांति को लाना या USA की विदेश नीति में साम्यवाद को रोकना एवं समाप्त करना, इसी प्रकार के लक्ष्य माने जा सकते हैं।