What are the main features of Indian Constitution – भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएं क्या हैं?
श्रेष्ठतम भावनाओं पर आधारित भारतीय संविधान ने भारत में संसदीय शासन प्रणाली स्थापित की। सभी नागरिकों को स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व व न्याय का आश्वासन मिला। 71वर्ष का समय बीत गया। किंतु ‘संविधान की आत्मा’ के अनुरूप भारतीय जनता को वह कुछ नहीं मिला, जिसकी कामना की थी। भारतीय नेताओं ने उनकी आशाओं पर पानी फेर दिया। आज भारत संप्रदायिकता, जातीयता, क्षेत्रीयता, स्वार्थ आधारित राजनीति व सत्ता लोलुपता के भंवर में ऐसा फँस गया है कि इस स्थिति से वह मुक्ति के लिए किसी ऐसे नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा है, जो उसकी समस्याओं का निदान कर सकें। जनहित की दृष्टि से 105 संशोधन भी हुए, किंतु स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है। राजनीतिक संस्कृति विकृत हो गई है। जनता के कष्टों में निरंतर वृद्धि हो रही है। भारतीय राजव्यवस्था पर सामान्य जनता का अब विश्वास नहीं रहा हैं। यह क्यों हुआ इसके लिए भारत की राजव्यवस्था का सूक्ष्म विवेचना करना समीचीन होगा; किंतु इसके पूर्व भारतीय संविधान का अध्ययन करना उचित प्रतीत होता हैं। क्योंकि संविधान की किन विशेषताओं के कारण वर्तमान स्थिति ने जन्म लिया। इस दृष्टि से भारतीय संविधान की विशेषताओं और व्यवस्थाओं का विवरण निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता हैं –
1. लिखित एवं निर्मित संविधान –
संविधान सभा ने नवनिर्मित संविधान 26 नवंबर, 1949 को अधिनियमित, आत्मार्पित तथा अंगीकृत किया। नागरिकता, निर्वाचन और अंतरिम संसद से संबंधित उपबंधों तथा अस्थाई और संक्रमणकारी उपबंधों को तुरंत 26 नवंबर, 1949 को लागू कर दिया गया। शेष संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ तथा इसी तिथि को संविधान को लागू होने की तिथि माना गया। इसी दिन भारत को गणतंत्र घोषित किया गया।
2. विश्व का सबसे बड़ा संविधान –
भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा संविधान हैं। इस संविधान में केंद्र सरकार, राज्य सरकार, प्रशासनिक सेवाएंँ, निर्वाचन आदि प्रशासन से संबंधित सभी विषयों पर विस्तार से लिखा हैैं। प्रारंभ में मूल संविधान में 395 अनुच्छेद, 22 भाग तथा 8 अनुसूचियांँ थी। संविधान में निरंतर संशोधन होते रहने के कारण संविधान के आकार में वृद्धि होती गयी। बहुत से उपबंध इसमें जोड़ें गए तथा कुछ निष्कासित भी किए गए। 42वें संविधान संशोधन (1976) द्वारा इसकेेे आकार में विशेष रुप से वृद्धि की। इसमें भाग-4 ए तथा भाग-14 ए जोड़े गए तथा अनेक अनुच्छेदों का विस्तार किया गया। प्रथम संविधान संशोधन द्वारा नवीं तथा 52वें संशोधन अधिनियम 1985 द्वारा दसवीं अनुसूची जोड़ी गयी। ग्राम पंचायतों एवं नगरपालिका विषयक 73वें तथा 74वें संशोधन को ग्यारहवीं अनुसूची व बारहवीं अनुसूची में सम्मिलित किया गया हैं। अभी तक इसमें 102 संशोधन प्रमाण के रूप में विद्यमान हैं। इससे संविधान का स्थूल रूप निरंतर बढ़़ रहा हैं। इससे संविधान का विकास और श्रेष्ठ परंपराओं का मार्ग अवरुद्ध हुआ हैं।
3. संविधान की प्रस्तावना –
संविधान में एक प्रभावशाली एवं प्रेरणा स्रोत प्रस्तावना हैं। यह प्रस्तावना संविधान के उद्देश्य या लक्ष्य निर्धारित करती हैं। प्रारंभ में प्रस्तावना को संविधान का अंग नहीं माना गया तथा इसमें परिवर्तन के लिए भी कोई प्रावधान नहीं रखा गया। इसेेे न्यायालय में प्रवर्तित नहीं किया जा सकता, लेकिन जहांँ संविधान की भाषा संदिग्ध हो वहांँ प्रस्तावना की सहायता ली जा सकती हैं। प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता हैं अथवा यह संविधान का अंग है या नहीं? यह सदैव विवादास्पद रहा हैं। इस विवाद का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में किया। इसके द्वारा प्रस्तावना को संविधान का अंग माना गया तथा निर्णय दिया कि इसमेें संशोधन भी किया जा सकता है 42वें संविधान संशोधन (1976) द्वारा प्रस्तावन में संशोधन करते हुए ‘समाजवादी‘, ‘धर्मनिरपेक्ष‘ तथा ‘अखंडता’ शब्द्द जोड़े गए।
4. भारतीय संविधान में विभिन्न संविधानों का समावेश (संविधान के स्रोत) –
भारतीय संविधान बनाने से पूर्व संविधान सभा में विभिन्नन देशों के संविधानों का अध्ययन किया तथा स्वतंत्रता से पूर्व बने अधिनियमों, राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रस्तावों का भी अध्ययन किया गया जहांँ सेे जो उपबंध अच्छा लगा, वह ले लिया गया तथा भारतीय संविधान में सम्मिलित कर लिया गया। संविधान के विभिन्न प्रमुख उपबंधों के निम्नलिखित स्रोत हैं –
संसदीय प्रणाली, संसद तथा विधानमंडल की प्रक्रिया, संसदीय विशेषाधिकार –
U.K.
मौलिक अधिकार, सर्वोच्च न्यायालय का संगठन व शक्तियांँ, उपराष्ट्रपति का पद –
U.S.A.
- संघात्मक व्यवस्था –
Kanada (Canada) और 1935 के अधिनियम से।
- राज्य के नीति निर्देशक तत्व –
आयरलैंड।
- आपात् उपबंध –
जर्मनी तथा 1935 का भारतीय अधिनियम से।
मौलिक कर्तव्य –
पूर्व सोवियत संघ।
- गणतंत्र –
फ्रांस।
- समवर्ती सूची –
ऑस्ट्रेलिया के संविधान से लिया गया हैं। इसके अतिरिक्त संविधान का पूरा मॉडल ब्रिटिश राज व्यवस्था को ध्यान में रखकर बनाया गया हैं। यद्यपि ब्रिटेन में अलिखित संविधान हैं। भारत ने वहांँ स्थापित परंपराओं को अपने अनुरूप संविधान में लिपिबद्ध किया हैं।
5. कठोर तथा लचीलेपन का संविधान में समन्वय –
संविधान में संशोधन प्रणाली के आधार पर संविधान दो प्रकार का होता हैं –
कठोर संविधान वह होता हैं जिसमें संविधान संशोधन की प्रक्रिया जटिल होती हैं।लचीला संविधान वह होता है जिसमें संविधान संशोधन की प्रक्रिया सरल होती हैं।
भारतीय संविधान में संविधान संशोधन के लिए तीन प्रक्रिया अपनाई जाती हैं –
- संसद के प्रत्येक सदन के साधारण बहुमत द्वारा –
साधारण विधेयक (गैर-वित्तीय) को पारित करने की प्रक्रिया अर्थात् दोनों सदनों के उपस्थित तथा मतदान देने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत द्वारा पारित होने के बाद राष्ट्रपति की अनुमति से पारित हो जाता हैं।
- संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत द्वारा –
संशोधन विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता हैं। प्रत्येक सदन में यह सदन की कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थिति एवं मतदान देने वाले सदस्यों दो तिहाई (⅔) बहुमत द्वारा पारित होना चाहिए तथा इसके बाद राष्ट्रपति का अनुमोदन मिलने के बाद यह संशोधन हो जाता हैं।
संघ तथा राज्यों की सहमति से –
इस प्रक्रिया के अंतर्गत संविधान संशोधन विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता हैं। प्रत्येक सदन द्वारा कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान देने वाले सदस्यों के दो तिहाई (⅔) बहुमत से पारित होना चाहिए। इसके बाद यह पारित संशोधन विधेयक राज्यों के विधानमंडलों के पास भेंजा जाता हैं। भारत के कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमंडलों द्वारा साधारण बहुमत से पारित किया गया विधेयक पारित माना जाएगा। राज्यों से अनुमोदित विधेयक राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेंजा जाता हैं। राष्ट्रपति की अनुमति मिल जाने के बाद संशोधन मान्य होता हैं।
6. संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न राज्य –
भारतीय संविधान ने यह व्यवस्था की है कि भारत एवं भारत के लोग किसी भी बाहरी या विदेशी सत्ता के अधीन अथवा दबाव में कार्य नहीं करेंगे। अर्थात् भारत अपनी सभी मामलों (बाहरी तथा आंतरिक) में स्वतंत्र होकर अपने हित में स्वयं निर्णय लेगा। भारत की संप्रभुता को बनाए रखने के लिए ही गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति को अपनाया गया एवं संप्रभुता की रक्षा करने के लिए हर संभव उपाय किए गए हैं।
7. लोकतंत्रात्मक राज्य –
भारत में ब्रिटेन के लोकतंत्र के अनुरूप लोकतंत्र की स्थापना की गई। जनता की शासन-प्रशासन में अधिक-से-अधिक सहभागिता का सुनिश्चित किया गया। यहाँ प्रत्यक्ष लोकतंत्र की स्थापना न करके अप्रत्यक्ष लोकतंत्र की स्थापना की गई। संविधान के निर्माताओं ने केवल राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना नहीं की, अपितु सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना का संकल्प भी लिया। भारत में ऐसे लोकतंत्र की कल्पना की गई जिसमें कोई विशेष वर्ग नहीं होगा तथा सत्ता किसी विशेष वर्ग के हाथ में नहीं होगी।
8. गणतंत्रात्मक राज्य –
भारत में ब्रिटेन के लोकतंत्रात्मक मॉडल को तो अपनाया गया, लेकिन राजा के आनुवंशिक पद को नहीं अपनाया गया। राष्ट्र का अध्यक्ष आनुवंशिक न होकर निर्वाचित होगा। भारत का कोई भी नागरिक जो निर्धारित योग्यताएंँ रखता हो, बिना किसी जाति, लिंग, धर्म आदि भेदभाव के निर्वाचन द्वारा राष्ट्रपति निर्वाचित हो सकता हैैं। ‘गणतंत्र’ शब्द का यही अभिप्राय है की भारत का राष्ट्रपति निर्वाचित होगा।
9. संसदीय सरकार –
संसदीय व्यवस्था में संसद को अधिक महत्व प्रदान किया जाता हैं। कार्यपालिका संसद के प्रति उत्तरदायी होती हैं। इस व्यवस्था में दोहरी कार्यपालिका होती हैं- एक नाम मात्र की कार्यपालिका तथा दूसरी वास्तविक कार्यपालिका, भारत में नाम मात्र की कार्यपालिका राष्ट्रपति है तथा वास्तविक कार्यपालिका प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिमंडल हैं। प्रधानमंत्री तथा मंत्रिमंडल संसद के प्रथम सदन लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी हैं। मंत्रिमंडल संसदीय व्यवस्था में मंत्रिपरिषद ही वास्तविक सरकार होती हैं। जिसे संसद, विशेष रुप से लोकसभा, नियंत्रित करती हैं। कभी-कभी प्रधानमंत्री के प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण प्रधानमंत्री ही वास्तविक शासक का रूप धारण कर लेता हैं। अतः आलोचक इस व्यवस्था को ‘प्रधानमंत्री व्यवस्था’ भी कहनेे लगते हैं। नेहरू और इंदिरा जी प्रभावशाली प्रधानमंत्री थे। इस व्यवस्था को ‘मंत्रिमंडलात्मक व्यवस्था’ भी कहा जाता हैं।
10. समाजवादी व्यवस्था –
भारतीय संविधान में समाजवादी तत्त्व प्रारंभ से ही सम्मिलित थे, लेकिन इसे अधिक महत्व प्रदान करने के लिए ‘समाजवादी’ शब्द संविधान की प्रस्तावना में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा 1976 में सम्मिलित किया गया। ‘समाजवाद‘ शब्द का अर्थ अत्यंत व्यापक हैं। फिर भी समाजवाद का मूल मतलब आर्थिक शोषण को समाप्त करना हैं। भारतीय समाजवाद यूरोपियन समाजवाद अथवा चीन की समाजवादी व्यवस्था के अनुरूप नहींं हैैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में समाजवाद का मतलब राज्य के उस समाजवादी ढांँचे से संबंधित नहीं हैं, जिससे उत्पादन केे सभी साधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाता हैं। इंदिरा गांधी ने इसी परिप्रेक्ष्य में कहा था कि “केवल राष्ट्रीयकरण करना, यह हमारा समाजवाद नहीं हैं।” हमारा समाजवाद भारतीय परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक विचारधारा पर आधारित समाजवाद हैं। अर्थात भारत के विभिन्न वर्गों में असमानता समाप्त करके आर्थिक एवं सामाजिक शोषण को समाप्त करना हैं।
11. धर्म निरपेक्ष राज्य-
विभिन्न धर्म एवं संप्रदायों का भारत मेंं जन्म हुआ तथा यहांँ विदेशी शासकों के आवागमन के कारण उनके साथ विभिन्न धर्मों का आगमन हुआ। इन धर्मो एवं संप्रदायों की अंत: क्रिया से विभिन्न धार्मिक समुदायों का उदय हुआ। इन धार्मिक समुदायों में परस्पर प्रतिस्पर्धा एवं वैमनस्यता को समाप्त करके सहिष्णुता एवं सामंजस्य स्थापित करने के लिए भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता को स्थान दिया गया। 42वें संविधान संशोधन द्वारा ‘धर्मनिरपेक्ष‘ शब्द को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ दिया गया।
12. संघात्मक व्यवस्था तथा एकात्मक व्यवस्था का समन्वय –
संविधान द्वारा संघात्मक ढांँचे को स्वीकार किया गया अर्थात केंद्र तथा राज्यों में अलग-अलग सरकारें स्थापित की गई तथा राज्यों तथा केंद्र में शक्तियों का विभाजन किया गया हैं। लेकिन व्यवहार में राज्यों पर केंद्र का वर्चस्व स्थापित किया गया हैं।
संघात्मक व्यवस्था के लक्षण –
- संविधान की सर्वोच्चता,
- शक्तियों का विभाजन,
- स्वतंत्र सर्वोच्च न्यायालय,
- उच्च सदन का राज्य सदन होना।
एकात्मक व्यवस्था– भारतीय संविधान की कुछ ऐसी विशेषताएंँ हैं, जो अन्य संघीय संविधानों (USA, Swiss) में नहीं पाई जाती हैं। बल्कि एकात्मक संविधान में पाई जाती हैं।
भारतीय संविधान के एकात्मक लक्षण –
- शक्तिशाली केंद्र,
- शक्तियों का वितरण केंद्र के पक्ष में,
- राज्यों के विषय पर केंद्र कानून बना सकता हैं,
- विधानमंडलों पर केंद्र का नियंत्रण,
- राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा,
- इकहरी नागरिकता,
- आपातकालीन उपबंध,
- राज्यों के अलग संविधान नहीं,
- केंद्र शासित क्षेत्र,
- राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व,
- संसद को राज्यों का नाम बदलने तथा उसके सीमाओं में परिवर्तन का अधिकार,
- इकहरी न्याय व्यवस्था,
- अखिल भारतीय सेवाएं।
13. एकीकृत न्याय व्यवस्था –
संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ भारत में एकीकृत न्यायपालिका का गठन किया गया हैं। केंद्र में सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों में उच्च न्यायालय की स्थापना की गई हैं। राज्यों में उच्च न्यायालय राज्य के शासन का तीसरा अंग है, लेकिन राज्य को उच्च न्यायालय के संबंध में अधिकार नहीं मिले हैं, क्योंकि उच्च न्यायालय का संंगठन, न्यायाधीशों की नियुक्ति क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों के अंतर-उच्च न्यायालय स्थानांतरण, न्यायाधीशों को पद मुक्त करना उनके वेतन भत्ते आदि का अधिकार केवल केंद्र सरकार को हैैं। उच्च न्यायालय राज्य शासन का तीसरा अंग न होकर सर्वोच्च न्यायालय का एक अधीनस्थ न्यायालय हैं। न्यायालय से न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति किए जाते हैं। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता हैं कि न्यायपालिका को एकीकृत न्यायपालिका के रूप में संगठित किया गय है तथा सम्पूर्ण देश के लिए सर्वोच्च न्यायालय सर्वोपरि है तथा उच्च न्यायालय उसके अनुसार निर्णय देने को बाह्य हैं।
14. व्यस्क एवं सार्वजनिक मताधिकार –
भारतीय संविधान निर्माताओंं ने सभी नागरिकों को मताधिकार देने का प्रावधान रखा हैं। जाति, लिंग, धर्म, शिक्षा, क्षेत्र, व्यवसाय, वार्षिक आमदनी, कर का भुगतान, आदि के आधार पर मताधिकार देना स्वीकार नहीं किया। सभी भारतीय नागरिक जिन्होंने एक निश्चित आयुु प्राप्त कर ली है तथा अन्य अयोग्यताएंं जैसे-पागलपन, दिवालियापन, तथा अपराधी नहीं है, उन्हें मताधिकार दिया गया है। प्रारंभ में मताधिकार की आयु 21 वर्ष रखी गई थी तथा बाद में 61वें संविधान संशोधन द्वारा मताधिकार की निम्नतम आयुु 18 वर्ष कर दी गई हैं। अतः व्यस्कमताधिकार का अर्थ है-वह भारतीय नागरिक जिसने कम-सेेेेे-कम 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली हैं। मत देने का अधिकारी है तथा सार्वजनिक का अभिप्राय बिना किसी भेदभाव के सभी व्यस्क नागरिकों को मत देने का अधिकार हैं।